बाड़मेर : रेलगाड़ियों चलतीं तो शायद नहीं होता गंभीर हादसा

बाड़मेर : रेलगाड़ियों चलतीं तो शायद नहीं होता गंभीर हादसा
केंद्र सरकार ही नहीं चाहतीं की दुबई बनने वाली सरहदों पर बसी जनता को बेहतर सुविधाएं मिलें : राजू चारण

बाड़मेर ।। बाड़मेर जोधपुर अति व्यस्त रिफाइनरी प्रोजेक्ट सड़क मार्ग पर लापरवाही पूर्वक लगभग चार पांच दर्जन लोगों की जिंदगी दांव पर लगाकर सिर्फ और सिर्फ घड़ियाली आंसुओं के सहारे अपनी राजनीति चमकाने वाले नेताओं ने दुःख व्यक्त करने में जमीं आसमान एक कर दिया है लेकिन उनके द्वारा बाड़मेर जिले की जनता जनार्दन सहित भारतीय सेना के जवानों और प्रवासी राजस्थानियों को आवागमन करने के दौरान होने वाली परेशानियों को देखते हुए यह केन्द्र की भाजपा से लैस नरेंद्र मोदी सरकार के गाल पर बालोतरा के निवासी बाड़मेर जैसलमेर लोकसभा क्षेत्र के सांसद कैलाश चौधरी के कार्यकाल पर अमिट तमाचा जड़ दिया है लेकिन एक दो महीने बाद फिर से कोई अनहोनी घटना होने पर यह बात भौला राम के जीव की तरह सरकारी फाइलों में दफन हो जाएगा लेकिन पिछे रहेगी तो सिर्फ और सिर्फ अधिकारियों को अपनी जान बचाने के लिए लेन देन का रास्ता…. चाहे जिम्मेदार पुलिस तंत्र, परिवहन विभाग या फिर जिले में हमेशा की तरह राजनीतिक आकाओं की शिफारिशों पर आएं हुए लापरवाह जिम्मेदार अधिकारी

जानकारों ने बताया कि केन्द्र सरकार द्वारा समय-समय पर बाड़मेर से हवाई सेवाओं सहित अन्य राज्यों तक आवागमन करने के लिए रेलगाड़ियों की सुविधाएं उपलब्ध होती तो फिर इन दौड़ती हुई मोत से जरूर छुटकारा मिलता, बाड़मेर जिले से लगभग एक हजार के आस-पास लापरवाही पूर्वक चलने वाली वातानुकूलित स्लीपर कोच बसों से कभी भी गंभीर हादसा हो सकता है इसलिए इस दुर्घटना को मील का पत्थर नहीं बनाकर आगे कोई और हादसा न हो यह सोचने वाली बात है। जरूर कहीं न कहीं कोई गुपचुप तरीके से मीटिंग आयोजित कर खानापूर्ति जरूर होगी लेकीन वास्तव में होगा क्या जो हमेशा हमेशा होता है ढांक के तीन पात….

बाड़मेर जिले से जर्नलिस्ट काउंसिल ऑफ इंडिया के वरिष्ठ पत्रकार राजू चारण ने बताया कि रेल्वे सुविधाओं के लिए शायद ही कोई ऐसा पल होता होगा, जिसमे किसी यात्री या संगठनों द्वारा कोई माँग न होती हो। स्टापेजेस से लेकर नई लम्बी दूरी की रेल गाड़ियों के लिए एक से बढ़कर एक माँग तैयार ही रहती है। कई यात्री संगठन तो रेल गाड़ी के मार्ग परिवर्तन, एक्सटेंशन के लिए आन्दोलनों की हद तक उत्साहित रहते है। क्या अपनी मांगों, जरूरतों से इतर जाकर रेलवे की उत्पादकता बढ़े ऐसा सुझाव कहीं नजर क्यों नही आता?

रेल प्रशासन जब भी किसी गाड़ी में स्टापेजेस बढ़ाती/घटाती है तो उसके पीछे खर्च का कारण बताती है, जो की कुछ लाख रुपयों में होता है। यात्री ठहराव का मतलब उक्त स्टेशन पर यात्री सुविधाएं, रखरखाव, उसके लिए संसाधन, कर्मचारी आदी मूलभूत सुविधाओं का भी विस्तार का विचार करना होता है। यही बात नई गाड़ी शुरू करना या गाड़ी को विस्तारित करने के बाबत में भी लागू होता है। गाड़ी बढाना, स्टापेजेस बढाना केवल इतना मात्र नही होता, आगे उनके परिचालन विभाग के कर्मियोंके, जैसे लोको पायलट, गार्ड, स्टेशनकर्मी, मेंटेनेंस स्टाफ़ आदि के व्यवस्थापन का भी यथायोग्य नियोजन करना होता है। यह सारी चीजें उस खर्च में सम्मिलित होती है।

आजकल रेल प्रशासन ज़ीरो टाइमटेबल पर काम कर रही है। इसमें कई स्टापेजेस छोड़े जाने का नियोजन है। यह व्यवस्था गाड़ियों की न सिर्फ गति बढ़ाएगी बल्कि रेल व्यवस्थापन के खर्च में कमी भी ले आएगी। इसके बदले में रेलवे उक्त स्टेशनों का अभ्यास कर, माँगों के अनुसार डेमू,मेमू गाड़ियाँ चलाने की व्यवस्था करने की सोच रही है। मेमू गाड़ियाँ ग़ैरउपनगरिय क्षेत्रों में चलाई जानेवाली उपनगरीय गाड़ियोंके समान होती है। जिनका पीकअप स्पीड ज्यादा होता है और रखरखाव कम। छोटे अन्तरोंमें यह गाड़ियाँ बेहद उपयुक्त साबित होती है। फिलहाल इनके ट्रेनसेट कम है और जरूरत के हिसाब से तेजी से उत्पादन बढाया जा रहा है।

रेल प्रशासन ने विकास कार्यों और आवक के संसाधनो पर 95 प्रतिशत से ज्यादा का निर्धारण किया है। इसमें समर्पित मालगाड़ियों के गलियारों के लिए बड़ा प्रस्ताव है, साथ ही व्यस्ततम मार्गों का तीसरी, चौथी लाइन का निर्माण भी सम्मिलित है। यह प्रस्तवित संसाधन जब हकीकत के धरातल पर कार्य शुरू कर देंगे तब ग़ैर उपनगरिय मेमू गाड़ियों के लिए जगह ही जगह उपलब्ध हो जाएगी। मुख्य मार्ग की लम्बी दूरी की गाड़ियाँ सीधी चलाने में कोई बाधा या रुकावट नही रहेगी और यात्रियों की माँग की भी यथोचित पूर्तता की जा सकेगी। आज यह सारी बाते स्वप्नवत है, लेकिन जिस तरह कार्य चलाया जा रहा है, वह दिन दूर नहीं जब मुनाबाव सरहद की तस्वीरें जल्द ही बदलने वाली है।

यात्रियों को यह समझना चाहिए, स्टेशनों के व्यवस्थापन का निजीकरण कर के यात्रियों के लिए सुविधाओं को कितना उन्नत बनाया जा रहा है। किसी जमाने मे बड़े से बड़े जंक्शन पर लिफ्ट, एस्कलेटर, बैट्रिचलित गाड़ियों की बात तो छोड़िए रैम्प तक नही होते थे, जो आज लगभग हर मेल/एक्सप्रेस के ठहराव वाले स्टेशनों पर मिल रहे है। गाड़ियों के द्वितीय श्रेणी के डिब्बों तक मे मोबाईल चार्जिंग पॉइंट दिए जा रहे है। स्टेशन साफसुथरे, सुन्दर और आकर्षक हो रहे है। क्या यह व्यापक बदलाव नही है?

सिर्फ गाड़ियों के स्टापेजेस बढाना, विस्तार करना, नई गाड़ियोंके प्रस्ताव रखना इसके अलावा भी रेलवे को कई सुझावों की आवश्यकता है, जिनसे उसकी उत्पादकता बढ़े। रेलवे पार्सल ऑफिस को जनोपयोगी, ग्राहकोंपयोगी बनाना, पार्सल कर्मियों की निपुणता बढाना ताकी वह ग्राहक को यथयोग्य उत्तर दे सके। रेलवे बहुत सारे काम ऑनलाईन जर रही है। ऐसे में मैन्युयल काम को घटाकर भी अपनी उत्पादकता बढ़ाने में सहायता मिल रही है।

आखिर में, हमारा देश इतना बड़ा और जनसंख्या इतनी अधिक है, की कोई भी ट्रेन बढ़े या स्टापेजेस बढ़े वहाँपर ट्रैफिक तो मिलनी ही है। खैर जनसंख्या ज्यादा होना इसको हम कमी नही, हमारे देश का बलस्थान मानते है और रेल्वे भी उसी सोचपर अपनी कार्यशैली को आगे बढ़ाती है। जरूरत एक बेहतर सोच की है, सेवा का बेहतर मूल्य चुकाने की है।